खास कथा शैली के कारण हमेशा याद रहेंगे हुसैनुल हक़
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उर्दू कथाकार Hussainul Haque नहीं रहे। चमत्कृत कनेवाली लेखन शैली और सूफी परंपरा की सुगंध फैलती रहेगी।
लगभग ढाई तीन वर्षों से कैंसर से जूझते हुए उर्दू कथा साहित्य के उत्कृष्ट रत्न हुसैनुल हक़ की जीवन लीला समाप्त हो गयी। उन्होंने बहत्तर वर्ष की उम्र पायी । आखरी दो वर्षों में उन्हें ग़ालिब अवार्ड और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह मगध यूनिवर्सिटी, बोधगया के उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर 2014 में सेवानिवृत्त हुए थे। सासाराम की धरती पर उनका जन्म हुआ था और कल शुक्रवार को जुमा की नमाज़ के बाद वहीँ हमेशा के लिए उन्हें सुला दिया जाये गए।
उर्दू कहानीकारों में 1960 के बाद जो पीढ़ी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करने में कामयाब हुई हुसैनुल हक़ उसके प्रतिनिधि लेखक माने गए। बिहार के स्तर पर एक साथ शौकत हयात, हुसैनुल हक़, शफ़क़ , अली इमाम और अब्दुस समद उर्दू कहानी की दुनिया में 1965 से 1970 के दौरान छा गए थे। आधुनिकतावादी साहित्य का गहन दबाव था। हुसैनुल हक़ ने शैलीगत संतुलन बनाये रखा और पाठकीयता की परंपरा को समझते हुए विविधता को कारगर हथियार के तौर पर अपने लेखन में इस्तेमाल किया। उस काल में हुसैनुल हक़ आधुनिकतावादी पत्रिकाओं से बाहर भी सक्रियता से प्रकाशित होते रहे जिसकी वजह से उनकी ग्राह्यता बढ़ी ।
हुसैनुल हक़ ने अपने लम्बे साहित्यिक जीवन में तीन उपन्यास प्रकाशित किया – “बोलो मत चुप रहो” , फोरात ” और ” अमावस में ख्वाब ” उनकी कहानियों के कुछ प्रमुख संग्रह ये हैं : ” घने जंगलों में “, ” मतला “, नीवं की ईंट “, ” सूरते हाल ” । उन्होंने आलोचनात्मक और शोधपरक लेखन भी जारी रखा । आधे दर्जन से कम ऐसी किताबें नहीं परन्तु उनकी प्रमुख पहचान कहानीकार और उपन्यासकार के तौर पर सुस्पष्ट हुई । वह अपनी चमत्कृत कर देने वाली शैली तथा सूफी परंपरा के अव्ययों को लेखन में समाहित करने के कारण विशिष्ट मालूम हुए । मध्य बिहार की जटिल भूमि समस्या , साम्प्रदायिकता तथा मानव संबंधों की मर्मस्पर्शी कहानियों ने उन्हें लोकप्रिय बनाया ।
वे गंभीर वक्ता के तौर पर साहित्यिक आयोजनों में पहचाने जाते थे । वक्तृत्व कला में वे पारंगत थे । अनेक मंचों पर इसका प्रमाण मिलता रहता था । कोरोना की दूसरी लहर में शौकत हयात विदा हुए और अब हुसैनुल हक़ । शफ़क़ बहुत पहले ही इस संसार से उठ गए थे । बिहार के कथा – साहित्य पर 2021 बहुत भारी पड़ा ।
हुसैनुल हक़ से एक निजी रिश्ता भी रहा । नीवं की ईंट कहानी जब उन्होंने लिखी थी , उसे पहली बार मेरे घर पर पटना के अनेक लिखने वालों के बीच पढ़कर सुनाया था जिसमें सबने मन कि वह एक अद्भुद कहानी है । गया उनके घर पहुंचा , दरवाज़ा खोलते ही उन्होंने कहा कि अभी एक कहानी पूरी की है , पहले उसे सुन लो तब खाना खाया जायेगा । वही कहानी बाद में ” ना-गहानी ” शीर्षक से प्रकाशित हुई और चर्चा में रही । उनकी एक कहानी ” अनहद मुझे बहुत पसंद थी और उसपर कई बार विस्तार से लिखने की योजना बनी लेकिन पूरी न हो सकी । ऐसा लगता भी नहीं था कि वे इतनी जल्दी विदा ले लेंगे । दो सौ से कम उनकी कहानियां नहीं हैं । तीन उपन्यास और आलोचना शोध के अनेक दुर्लभ ग्रन्थ असंकलित और अप्रकाशित रचनाएँ भी कम नहीं होंगी । उनका समेकित मूल्यांकन हमारी पीढ़ी पर क़र्ज़ है। आने वाले समय में उनका मूल्यांकन बेहतर तरीके से शायद संभव हो सके।
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